किरति करम के वीछुड़े, करि किरपा मेलहु राम।।
चारि कुंट दह दिस भ्रमे, थकि आए प्रभ की साम।।
धेनु दुधै ते बाहरी कितै न आवै काम।।
जल बिनु साख कुमलावती उपजहि नाही दाम।।
हरि नाह न मिलीऐ साजनै कत पाईऐ बिसराम।।
जितु घरि हरि कंतु न प्रगटई भठि नगर से ग्राम।।
स्रब सीगार तंबोल रस सणु देही सभ खाम।।
प्रभ सुआमी कंत विहूणीआ मीत सजण सभि जाम।।
नानक की बेनंतीआ करि किरपा दीजै नामु।।
हरि मेलहु सुआमी संगि प्रभ जिसका निहचल धम।।1।।
किरति करम के वीछुड़े, करि किरपा मेलहु राम।।
चारि कुंट दह दिस भ्रमे, थकि आए प्रभ की साम।।
अपनी इस सुन्दर रचना के द्वारा पंचम पातशाह श्री गुरू अर्जुन देव जी महाराज पफर्मान कर रहे हैं कि ‘‘परमात्मा’’ की अंश ‘‘जीवात्मा’’ अपने बुरे कर्मों के कारण उससे बिछड़ कर युगों से काल के अध्ीन हो कर चैरासी लाख योनियों में भटक रही है और परमात्मा से विनती अरजोई, प्रार्थना, करती है कि हे परम पिता परमेश्वर, हे मेरे वाहेगुरू, अकाल पुरख, हम अपने किये हुए कर्मों के कारण तुझ से बिछुड़ गये हैं, चारों कोने, दसों दिशायें, घूम कर, थक कर, तेरी शरण में आये हैं। अपनी कृपा करो, कोई ऐसा सज्जन, कोई ऐसा मित्रा, कोई ऐसा महापुरूष हमें मिला दो जिसके साथ मिलकर, जुड़कर, हम आपके दर्शन दीदार कर सकें। इस शरीर को, हमारी इस देह को, आत्मा को नौं दरवाजों के विषय-विकारों के, मन माया के बंध्न से, काल के पिंजरे से मुक्त कर सकें।
धेनु दुधै ते बाहरी, कितै न आवै काम।।
जल बिनु साख कुमलावती, उपजहि नाही दाम।।
गुरू साहिब आगे पफर्मान कर रहे हैं कि जिस प्रकार गाय जब दूध् देना बन्द कर देती है, वृद्ध हो जाती है तो कोई भी व्यक्ति उसकी पालना नहीं करना चाहता क्योंकि वह गाय फिर मनुष्य के किसी भी काम की नहीं रहती। इसी प्रकार खेती को पानी न मिले तो जो भी पफसल हमने खेत में बोई है, वह सूख जाती है और उस सूखी हुई खेती का बाजार में कुछ भी मूल्य प्राप्त नहीं होता। सब व्यर्थ चला जाता है।
हरि नाह न मिलीऐ साजनै, कत पाईऐ बिसराम।।
जितु ध्रि हरि कंतु न प्रगटई, भठि नगर से ग्राम।।
जब तक वह परमात्मा नहीं मिल जाता, जब तक जीवात्मा का मेल उसके साजन से नहीं हो जाता तब तक उसको कहीं भी चैन, शांति नहीं मिलती। भाव उसकी चैरासी लाख योनिओं की भटकन समाप्त नहीं होती। एक के बाद दूसरी योनि को धरण करना पड़ता है। जन्म-मरण का यह चक्र निरंतर चलता रहता है। आत्मा को कहीं भी विश्राम, शांति, सुकून, आराम नहीं मिलता। जिस शरीर में वह परमात्मा प्रकट नहीं है वह शरीर रूपी नगर, ग्राम, भटठे के समान है। विषय-विकारों की अग्नि में निरंतर तपते रहते हैं। उन्हें कभी शीतलता प्राप्त नहीं होती।
स्रब सीगार तंबोल रस, सणु देही सभ खाम।।
प्रभ सुआमी कंत विहूणीआ, मीत सजण सभि जाम।।
मनुष्य चाहे सारे श्रृंगार कर ले, अपनी बाहरी देह को सजा ले संवार ले, सुन्दर वस्त्रा धरण कर ले, आभूषण धरण कर ले, और जो भी सुन्दरता के प्रसाध्न हैं, उनका प्रयोग करके इसे जितना भी सुन्दर रूप दे दे, मुंह में पान भी रख ले वह सब इस देह, इस शरीर समेत सब नाशवंत है, पफनाह है। उस परमात्मा रूपी पति, स्वामी के बिना सब व्यर्थ है। जिनका स्वामी उनके सामने नहीं है उनके श्रंृगार का कोई मूल्य नहीं है।
नानक की बेनंतीआ करि किरपा दीजै नामु।।
हरि मेलहु सुआमी संगि, प्रभ, जिस का निहचल धम।।
गुरू साहिब पफर्मान कर रहे हैं कि उस सतिगुरू से ‘‘नाम दान’’ की विनती करनी चाहिये कि, हे सतिगुरू किरपा कर के तू अपना ‘‘नाम’’ दे दे जिसके द्वारा मैं अपने परम पिता परमेश्वर से मेल कर सकूं, वसल कर सकूं, जो उस परम धम-सचखण्ड का स्वामी है।